एक समय की बात है। एक राज्य में एक राजा राज करता था। उसका राज्य बहुत खुशहाल था। उस राज्य में धन-धान्य की कमी न थी। राजा और प्रजा दोनो खुशी खुशी जीवन यापन कर रहे थे। तभी एक बार उस राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। पानी की कमी के कारण फसल सुख गई। उस वर्ष किसानों को काफी क्षति हुई और वे राजा को लगान नही दे पाए। लगान नही प्राप्त होने के कारण राज्य के राजस्व में कमी आ गयी। राजस्व में कमी होने के कारण राजा चिंता में पड़ गया। अब हर समय वह यही सोंचता कि राज्य का खर्च कैसे चलेगा ?
अकाल का समय निकल गया और राज्य की स्थिति पहले की तरह सामान्य हो गई। लेकिन राजा के दिमाग मे चिंता घर कर गयी। हर समय उसके दिमाग में यही बात आता कि राज्य में पुनः अकाल पड़ गया तो क्या होगा ? इसके अतिरिक्त भी अन्य चिंताएं उसे घेरने लगी। पड़ोसी राज्य का भय, मंत्रियों का षड्यंत्र जैसे कई चिंताओं ने उसकी भूख प्यास और रातों की नींद छीन ली। वह अपने इस हालत से बहुत परेशान था किंतु जब भी वह राजमहल के माली को देखता तो वह आश्चर्य में पड़ जाता। दिन भर मेहनत करने के बाद वह माली शाम को रूखी-सूखी रोटी बनाकर खाता और पेड़ के नीचे बड़े मजे से सो जाता। उसे देख राजा को उससे जलन होने लगी थी।
एक दिन राजा के दरबार में एक भिक्षु पधारे। राजा ने उनका यथोचित स्वागत सत्कार किया और फिर उन्हें अपनी समस्या बताई। साथ ही राजा ने अपनी समस्या को दूर करने का उपाय भी पूछा। भिक्षु राजा की समस्याओं को अच्छी तरह समझ चुके थे। उन्होंने राजा से कहा- राजन, तुम्हारी चिंता की जड़ राजपाट है। अपना राजपाट अपने पुत्र को दे कर तुम चिंता मुक्त हो जाओ।
इस पर राजा ने कहा- गुरुवर, मेरा पुत्र सिर्फ पाँच वर्ष का है। वह अबोध बालक भला राजपाट कैसे संभालेगा ?
इस पर वे भिक्षु बोले , तब तुम अपनी चिंता का भार मुझे सौंप दो। इसपर राजा तैयार हो गया। उसने अपना राजपाट उस भिक्षु को सौंप दिया। अब भिक्षु ने राजा से पूछा - अब तुम क्या करोगे ?
इस पर राजा बोला-सोचता हूँ कि कोई व्यवसाय कर लूँ।
इस पर उस भिक्षु ने कहा- विचार तो ठीक है लेकिन उसके लिए धन की व्यवस्था तुम कैसे करोगे ? क्योंकि अब राजपाट तो मेरा है। राजकोष के धन पर भी मेरा अधिकार है।
तब राजा ने कहा- हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था। तब तो यही अच्छा रहेगा कि मैं कोई नौकरी कर लूँ |
इस पर भिक्षु बोले-अगर तुम्हें नौकरी ही करनी है तो कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है। यही नौकरी कर लो। मैं तो भिक्षु हूँ। मैं अपनी कुटिया में ही रहूँगा। तुम राजमहल में ही रहकर मेरी ओर से राजपाट संभालो। राजा ने भिक्षु की बात मान ली और भिक्षु की नौकरी करते हुए राजपाट संभालने लगा। भिक्षु अपनी कुटिया में चले गये।
कुछ दिनों के बाद वे भिक्षु पुनः राजमहल आए और राजा से पूछा - कहो राजन,अब तुम्हें भूख लगती है कि नहीं ? और अब तुम्हारे नींद का क्या हाल है ?
इस पर राजा ने भिक्षु को प्रणाम किया और बोला- गुरुवर, अब तो मुझे खूब भूख लगती है और रात को चैन से सोता हूँ। पहले भी मैं राजपाट का काम करता था और अब भी करता हूँ। फिर यह परिवर्तन कैसे हुआ ? यह मेरी समझ से बाहर है।
तब भिक्षु मुस्कुराये और बोले, पहले तुमने काम को बोझ बना लिया था और उस बोझ को हर समय अपने मस्तिष्क पर ढोया करते थे। राजपाट मुझे सौपने के बाद तुम अपना हर कार्य कर्तब्य समझकर करने लगे इसलिए तुम चिंता मुक्त रहें।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन में हम चाहे जो भी कार्य करें उसे अपना कर्तव्य समझकर करें न कि उसे बोझ समझकर। यही चिंता से मुक्त रहने का तरीका है।
किशोरी रमण
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bahut sundar...
शिक्षाप्रद कहानी।
बहुत सुंदर कहानी।