एक शिष्य अपने आचार्य से पूछता है कि हमारे मन को शान्ति क्यो नही मिलती है ? इसपर आचार्य शिष्य को समझाते हुए कहते है कि शान्ति कोई ऐसी चीज नही है जिसे प्राप्त की जाय। यह तो हमेशा से हर जगह है। हर मनुष्य के पास दो विकल्प होते है,पहला प्रेम और घृणा और दूसरा प्रेम और करुणा। ज्यादातर लोग जान- बूझकर या अनजाने में पहला विकल्प चुनते हैं और फिर कहते हैं कि उनका मन अशांत है।
वह शिष्य पूछता है कि मनुष्य क्रोध और घृणा चुनता ही क्यो है ? इसपर आचार्य कहते है कि ज्यादातर स्थितियों में मनुष्य क्रोध इसलिये चुनता है कि उसे अपने अहम को जिंदा रखना होता है। अहम का मतलब मै "जानता" हूँ। किसी ब्यक्ति की कोई मान्यता है और कोई दूसरा ब्यक्ति आकर उसे तोड़ने लगे तो वह ब्यक्ति क्रोधित हो जाएगा। इसलिए नहीं कि उसकी मान्यता टूट रही है बल्कि इसलिए कि उसका अहम टूट रहा है, और कोई खुद को बुद्धिमान कहने वाला ब्यक्ति अपने अहम को टूटते नही देख सकता है।
अब शिष्य पूछता है कि यह अहम बनता कैसे है ? इसपर आचार्य कहते हैं कि पहचान से। यहाँ हर ब्यक्ति ने अपनी एक पहचान बना रखी है और अपने आप को कुछ चीजों से जोड़ रखा है। अगर कोई आकर उसके पहचान को तोड़ने का प्रयास करता है तो वह ब्यक्ति क्रोधित हो जाता है। क्रोध अशान्ति को जन्म देता है। इसी तरह से घृणा और लालच काम करते है। किसी को लगता है कि मुझे इतना धन मिल जायेगा तो खुश हो जाऊँगा।अगर वह धन या वस्तु किसी औऱ को मिल जाता है तो वह उस ब्यक्ति से घृणा करने लगता है और घृणा से केवल अशान्ति का जन्म होता है। हाँ, ये शान्ति को मिटाती नही क्योंकि शान्ति को मिटाने का कोई तरीका नही है। वे बस अशान्ति को पैदा करती है क्योंकि अशान्ति को पैदा किया जा सकता है और मिटाया भी जा सकता है।
शिष्य पूछता है कि हम शान्ति को अपने जीवन मे कैसे लायें ?
इसपर आचार्य कहते है कि शान्ति कही से लानी नही होती है बल्कि यह तो हमेशा और हर जगह उपस्थित है। तुम संसार मे हर चीज को एक दृष्टिकोण से देखते हो या फिर देखना चाहते हो। तुमने हर चीज की अपने भीतर एक पहचान बना रखी है, तुमने हर चीज को गलत या सही में बांट रखा है। अगर चीज तुम्हारे हिसाब से होती है तो तुम्हे शान्ति मिलती है। तुम्हारे पास किसी और तरीके से देखने का या सोचने का विकल्प नही बचता ऐसी स्थिति में तुम उस बात को भी नही समझ पाते जो तुम्हारे हित मे होता है।
शिष्य पूछता है कि हम इस पहचान को कैसे मिटाए जो हमने अपने भीतर बना रखी है ? इस पर आचार्य कहते है कि ध्यान से। जब हम ध्यान करते है तो कम से कम उस समय हमारे लिए कुछ अन्य मायने नही रखता। ध्यान करते वक्त केवल हमारा अस्तित्व बचता है और कुछ नही और जैसे जैसे हम ध्यान में गहरे उतरते जाते है हमारे मन की स्पष्टता बढ़ती चली जाती है और हम देख पाते है कि हमारे अन्दर उठ रहे अशान्ति की वजह क्या है ?
और अंत मे शिष्य पूछता है कि इसकी शुरुआत कहाँ से करे ? इसपर आचार्य कहते है कि अपनी जागरूकता से जो जैसा है उसे वैसा देखना सीखो, और फिर ध्यान के द्वारा जो अपने भीतर पकड़ रखा है उसे छोड़ना सीखो और अगर इतना कर पाये तो शान्ति को कहीँ खोजना नही पड़ेगा |
किशोरी रमण।
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Ati Uttam kahani hai....
बहुत सुंदर प्रस्तुति।