सूफ़ी फकीर जुनैद एक रास्ते से गुजर रहे थे। उनकी ये आदत थी कि वे जब चलते थे तो बीच बीच में आकाश को निहार लिया करते थे मानो दूर जो ईश्वर बैठा है उससे वार्तालाप करते चल रहे हों। जुनैद के पैर में चोट लग गई।सड़क पर पड़े पत्थर से पैर लहू लुहान हो गया। जुनैद घुटने के बल बैठ कर परमात्मा को धन्यवाद देने लगे। वे कह रहे थे, हे प्रभु, तेरा जितना धन्यवाद करूं वह थोड़ा है। उनके शिष्य बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, हमे तो इसमें धन्यवाद देने जैसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ी। हां अगर परमात्मा आपको ठोकर से बचा लेता और आपके पैर में चोट न लगती तब हम सोचते कि धन्यवाद देने की कोई बात है। मगर आपका पैर लहू लुहान हो गया है फिर भी आप धन्यवाद दे रहे है।
जुनैद ने कहा , मूर्खो, तुम्हे पता नही। लगनी तो थी मुझे सूली लेकिन उसकी अनुकम्पा के कारण केवल पैर में चोट लगी और सूली टल गई।
बात सच थी क्योंकि जुनैद जिस सराय में ठहरे हुए थे उसे सैनिकों ने घेर लिया था। वहां का बादशाह जुनैद को पकड़ कर मार डालना चाहता था। उसे लगता था कि जुनैद ऐसी बातें करते है जो धर्म के खिलाफ है। नासमझ लोगों को हमेशा ऐसा ही लगता है। उन्हें इस बात का भ्रम होता है कि वे ही धर्म का असली मर्म समझते हैं। जुनैद जैसा फकीर उन्हें गलत लग सकता है क्योंकि ईश्वर के प्रति धन्यवाद का भाव उसी व्यक्ति में हो सकता है जो धर्म को सही रूप में समझता और उसे जीता है। शिष्यों को बाद में पता चला कि जुनैद ठीक कह रहे थे। उनको सूली पर चढ़ाने की तैयारी थी लेकिन सिर्फ पैर में चोट लग कर ही वह बच गए।
ये कहानी हमे सिखाती है कि जो भी मिला है उसके लिए प्रकृति का, समाज का, ईश्वर का हमे ऋणी होना चाहिए। चाहे कितना भी मिले हम सन्तुष्ट नहीं होते,अतः हमे जो भी मिला है वह कम लगता है। हम और पाने की अपेक्षा में दुखी होते रहते है। हमारी सोच नकारात्मक हो जाती है।
किसी के प्रति धन्यवाद का भाव उसी में हो सकता है जो सकारात्मक सोच का हो और जिसकी अपेक्षा नगण्य हो। जब अपेक्षा नगण्य होगी तो जो भी मिलता है उसके लिए धन्यवाद दिया जा सकता है।
किशोरी रमण
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Very nice.