कल महा पर्व का दूसरा दिन "खड़ना" था और आज है तीसरा दिन, पहली अर्घ का दिन, जब सब लोग नदी ,तालाव या अन्य पानी के स्रोत पर बनाये गए छठ घाट पर जाकर डूबते हुए सूर्य को पूरे विधि विधान और श्रद्धा के साथ अर्घ देंगे।
तो हम जारी रखते है कल के विमर्श के क्रम को और आज प्रस्तुत करते हैं उसका दूसरा हिस्सा यानी भाग -2
यह पर्व हमे हमारी जड़ो से, हमारी संस्कृति से हमारे परिवार से और हमारे समाज से जोड़ता है।
ये पर्व हमारे लोकभाषा और लोकगीतों को जिंदा रखे हुए है।इस पर्व के जो भी गीत है वो सब हमारी लोक भाषा मे ही है और ये कार्तिक का महीना शुरू होते ही फ़िज़ाओं में गूँजने लगते हैं।
यही वो पर्व है जिसमे सब कुछ अपनी मिट्टी, अपने खेत-खलिहान और गाँव मे उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से मनाया जाता है। खड़ना और अर्घ का प्रसाद मिट्टी के चूल्हें पर ,आम की लकड़ी की जलावन से बनता है। अपने खेतों का नया चावल, नया गुड़, दूध, शुद्ध घी से बना ठेकुआ, फल में बडा नींबू (गागर),अमरूद, केला का घौद, गन्ना, मूली ,शकरकंद, कच्ची हल्दी और अदरख इत्यदि प्रसाद के रूप में प्रयोग में लाये जाते है।
रोजी रोटी की तलाश में अपने घर परिवार से बिछुड़े और परदेश में रहने वाले लोग अपने लोगो से मिलने के लिए इसी पर्व का इंतजार करते है ताकि वे अपने गाँव वापस आ सके और अपनी मिट्टी की खुशबू और अपने लोगो से मिल सके। यानी उनके लिये अपने घर और अपनों के बीच लौटने का नाम छठ पर्व है। बिहार में तो पर्व के अवसर पर शहरों से गाँव मे लोगो का इस कदर पलायन होता है कि शहरों की जिन्दगी ठहर सी जाती है और सारी रौनक़ गावो में सिमट जाती है।
सूर्योपासना का पर्व पुराना है। यह कब से शुरू हुआ और किसने शुरू किया इसपर भिन्न भिन्न मान्यताएं और कहानियां है। हमारी हड़प्पा और मोहनजोदारो की सभ्यता विश्व की सबसे पुरातन सभ्यता मानी जाती है जिसकी लिपि अभी तक पढ़ी नही गई है अतः इस सभ्यता के बारे में ज्यादा हमे मालूम नही है। पर इस सभ्यता के बारे में एक बात तो स्पष्ट है कि ये काफी विकसित सभ्यता थी जिसमे अनुपम नगर ब्यवस्था एवं पानी के समुचित उपयोग, इसके भंडारण एवं निकासी की ब्यवस्था थी। जिसमे पानी को एकत्र करने हेतु बड़े बड़े आज के तालाब जैसा बनावट उपलब्ध थे। इतिहासकार इसे सामुहिक स्नानागार या फिर कोई सामुहिक धार्मिक आयोजन हेतु बनाये गए बताते हैं। कहीं ये सामूहिक आयोजन सूर्योपासना तो नही था ? इसपर आगे भी खोज होनी चाहिए।
छठ पर्व चार दिनों तक चलने वाला पर्व है। पहला दिन नहाय- खाय से शुरू होता है जिसमे तन और मन की शुद्धि एवं पूजा के बाद कद्दू की सब्जी एवं भात खाने का विधान है। दूसरे दिन खड़ना का होता है जिसमे परवैतिन(पर्व करने वाले स्त्री या पुरुष) दिन भर उपवास रखते है और शाम को पूजा और विधि विधान के बाद खड़ना प्रसाद ग्रहण करते है और फिर लोगो में खड़ना का प्रसाद वितरित किया जाता है। प्रसाद में गुड़ से बना खीर और रोटी, चावल से बना पीठा, गन्ने के रस से बना राब दूध इत्यादि होता है। इसके बाद शुरू होता है छत्तीस घंटे का निर्जला उपवास। पहली अर्घ के दिन लोग शाम को सज धज कर छठ गीत गाते हुए नदी, तालाब या अन्य जलश्रोत पर जाते हैं। फिर डूबते हुए सूर्य को,पानी मे खड़े होकर, हाथों में पूजन सामग्री लिये अर्घ अर्पित करते है। दूर दराज से आने वाले लोग नदी के तट पर रात भजन कीर्तन एवं ध्यान में बिताते है। वे सब गीतों एवं भजन के माध्यम से भगवान भास्कर से जल्दी उगने की विनती करते है। अगली सुबह परवैतिन स्नान कर पानी मे खड़े होकर सुर्योदय का इंतजार करते है। सूर्य की पहली किरण के साथ ही दूध और जल से भगवान भास्कर को अर्घ देने का सिलसिला शुरू हो जाता है। परवैतिन लोग बांस या पीतल से बने सुप या टोकरी में पूजन सामग्री लेकिन सूर्य भगवान को अर्घ अर्पित करते है और उनकी पंच परिक्रमा करते है। अन्य भक्तगण भी पानी मे स्नान कर सुप पर दूध और जल अर्पित करते है।
नदी तटों की शोभा देखते ही बनती है। नदी तट तक जाने वाले रास्तो को साफ सुथरा कर सजाया जाता है। सुबह में तटों पर मेले का दृश्य उत्पन होता है। और लोगो मे ठेकुआ, लडुआ, और फल का प्रसाद वितरित किया जाता है। रास्तो में लोग छठ प्रसाद के लिए याचक बन खड़े रहते है औऱ इसे बड़ी श्रद्धा के साथ ग्रहण करते हैं।
शेष--अगली कड़ी में जारी••••••
किशोरी रमण
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जय छठी मैया!
:-- मोहन"मधुर"
Very nice....
Happy chhat puja....